हर आदमी दूसरों से कुछ अपेक्षाएं रखता है। वह चाहता है कि लोग उससे एक खास तरह से मिलें, बोलें। इंसान दूसरों में भी अपना ही अक्स खोजता रहता है। यानी वह दूसरों को अपने जैसा ही देखना चाहता है। और जैसा व्यवहार वह खुद करता है वैसा ही दूसरों से भी उम्मीद करता है। अगर अगला वैसा नहीं करता तो उसे अटपटा लगता है। यह मनुष्य की विचित्र प्रवृत्ति है कि वह सबको एक ही रंग में देखता है। सामाजिक होने का अर्थ है अलग-अलग रंगों को स्वीकार करना और उनसे तालमेल बनाना।
हम अपने विपरीत स्वभाव को कितना स्वीकार कर पाते हैं, इससे हमारी सामाजिकता तय होती है। नेता वही हो सकता है जो विपरीत गुण वाले ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने साथ लेकर चल सके। इसलिए संतों ने अहं के त्याग की बात कही, खुद को भुलाने की बात कही। अगर हमारे मन में अपनी कोई छवि ही नहीं होगी तो हम दूसरों को भी किसी सांचे में ढालने की कोशिश नहीं करेंगे। इस तरह किसी की उम्मीद नहीं टूटेगी और विरोधी विचारों का भी आदर होगा।