hari om sharma – blog

A Step to understand the world logic


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हमेशा कुछ न कुछ नया करें

देखते-देखते साल 2015 गुजर गया और नए साल का आगमन हो गया। इसका अर्थ है कि जिंदगी का एक भाग जो कम या अधिक हो सकता है, बीत चुका है और शेष सामने है। क्या इस अवस्था या घटना को मामूली तौर पर लिया जा सकता है? कभी नहीं। जो बीत गया वो भी कई अर्थों में असाधारण था। उसमें जीत के क्षण थे तो हार के क्षण भी थे। खुशी थी तो दुख भी था। क्या ये सभी बीते क्षण हमारे आगे आने वाले क्षणों के लिए महत्त्व नहीं रखते?

हर कथित अच्छा-बुरा क्षण हमारा शिक्षक है, प्रेरक है, मार्गदर्शक है, सचेतक है। किन क्षणों को दोहराना है किन को नहीं, यह समझना बहुत अहम है। यदि आप चाहते हैं कि आपके व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन हो, आपका स्वास्थ्य अच्छा रहे, लोग आपके करीब आएं और आपसे प्यार करें, तो कुछ अच्छे क्षणों को चुनकर उन्हें दोहराने का संकल्प लीजिए।

सबसे पहले अपने स्वास्थ्य को लीजिए। कुछ गलत और नुकसानदायक आदतें छोड़िए। यदि बुरी आदतों को छोड़ना है तो अच्छी आदतों को अपनाना भी जरूरी है। प्राकृतिक भोजन पर आइए। घर में फूलों के पौधे लगाइए, आसपास पेड़ लगाइए और उनकी देखभाल स्वयं कीजिए। व्यायाम के साथ-साथ ध्यान व मेडिटेशन कीजिए। दिन में कुछ समय मौन के लिए निर्धारित कीजिए।

अपने व्यवसाय या सेवा में सुधार के लिए कोई प्रशिक्षण लीजिए। कोई सेमिनार या वर्कशॉप कीजिए। कोई अच्छी सी प्रेरणादायक पुस्तक पढ़कर उसका आनंद लीजिए। अपनी किसी हॉबी को थोड़ा-बहुत समय अवश्य दीजिए। यही नहीं, कोई नई हॉबी भी बनाइए। अपने सृर्जनात्मकता के विकास के लिए कुछ न कुछ नया करते रहिए।

अपने लिए ही नहीं, दूसरों के बारे में भी सोचिए। घर-परिवार के सदस्यों के लिए समय जरूर निकालिए। बच्चों के साथ खेलिए। उन्हें घुमाने ले जाइए। माता-पिता या दादा-दादी के साथ बैठकर गप्पें मारिए। वो जो कहना चाहते हों, उसे सुनिए। परिवार के सभी सदस्यों के साथ बाहर घूमने या पिकनिक मनाने जाइए। उनके लिए कोई उपयोगी सा उपहार लाकर दीजिए।

पति-पत्नी एक दूसरे की गलतियों को नजरअंदाज कीजिए और अपनी किसी गलती को स्वीकार कीजिए। एक दूसरे की केयर कीजिए। घर के बाहर भी कुछ अच्छा कीजिए। किसी को उसकी गलती के लिए क्षमा कीजिए और अपनी गलतियों के लिए क्षमा मांगिए। किसी की सच्चे मन से सहायता कीजिए। परिंदों के लिए किसी सुरक्षित स्थान पर दाना डालिए। गर्मी में उनके लिए मिट्टी का बर्तन पानी भरकर रखिए।

यकीन मानिए, इससे आपका नया साल और आगे आने वाला समय पहले से अधिक सुखद रहेगा।


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खुद को बदलना सीखें

रामकृष्ण परमहंस के दो शिष्यों में विवाद हो गया कि दोनों में कौन बड़ा है। एक कहता कि तुमसे बड़ा मैं हूं क्योंकि मैंने तुमसे पहले संन्यास-दीक्षा ली थी। दूसरा कहता कि मैंने तुमसे ज्यादा ज्ञान अर्जित किया है। विवाद का हल पाने दोनों गुरु के पास गए। गुरु ने मुस्कराते हुए कहा कि जो दूसरे को बड़ा माने वही बड़ा है। उनका निर्णय दोनों ने सुना। अब दोनों एक-दूसरे को बड़ा कहने लगे।

जो संन्यास में बड़ा था वह कहने लगा- सिर मुंडाने से क्या होता है, महत्वपूर्ण है ज्ञान। आप शास्त्रज्ञ हैं इसलिए आप श्रेष्ठ हैं। दूसरा बोला- शास्त्र पाठ से क्या होता है, एक साधनाहीन व्यक्ति भी बड़ा विद्वान हो सकता है। पर उससे क्या, महत्व साधना का है जिसमें आप श्रेष्ठ हैं। पहले दोनों में ‘मैं बड़ा’ का झगड़ा हो रहा था, अब ‘आप बड़े’ का होने लगा। मगर एक अंतर आ गया। पहले में कटुता मौजूद थी, दूसरे में मधुरता आ गई। एक में आग्रह और अहम था जबकि दूसरे में विनम्रता और सरलता।

कटुता मधुरता में आखिर कैसे बदली? दरअसल दृष्टि बदली तो घटनाओं का संदर्भ बदल गया। उसके साथ ही अर्थ बदल गया। अर्थ बदला तो पूरा वातावरण बदल गया। पूरा जीवन और जगत बदल गया। अगर हम बदलें तो सब कुछ अपने आप बदल जाएगा। हमारे बदलते ही हर चीज का संदर्भ परिवर्तित हो जाएगा। लेकिन हमारी स्थिति यह है कि हम पड़ोसी को, समाज को, सरकार को बदलना चाहते हैं, लेकिन खुद को बदलना नहीं चाहते।

समाज और सरकार को कोई अकेले नहीं बदल सकता जबकि खुद को अकेले बदलना संभव है। जो हमारे बस में है, उसी पर कोई मेहनत नहीं करता। मैं अपने एक मुक्तक में हमेशा कहता हूं- औरों को बदलने के लिए खुद को बदलना सीखें, शंकर बनना हो अगर तो विष घूंट निगलना सीखें। उजाले की परिभाषा न मिलेगी किताबों में उसे पाने के लिए खुद दीपक बन जलना सीखें।

हमें समझना होगा कि किस रास्ते पर चलें या फिर परमहंस जी जैसा कोई मिले जो उंगली पकड़कर बता सके कि कौन सी दृष्टि कहां ले जाती है? यह जिंदगी शैतान का मंदिर भी हो सकती है और भगवान का भी। यह हम पर है कि हम किसका मंदिर बनाना चाहते हैं। दोनों हमारे ही भीतर हैं। राम-रावण, कृष्ण-कंस, जीसस-जुडास, महावीर-गौशालक में से हम किसे अपना आदर्श चुनते हैं? जब अंदर का शैतान जागता है तो रावण, कंस, जुडास, गौशालक उठ खड़ा होता है। भगवान जागता है तो राम, कृष्ण, जीसस, महावीर अपनी दिव्यता के साथ हमारी ऊंगली थाम लेते हैं। जगाना किसे है यह हमारी दृष्टि पर निर्भर है। भगवान महावीर इसीलिए सबसे अधिक बल सम्यक-दर्शन पर देते हैं- हमारी दृष्टि सही हो, इसी से ज्ञान भी सही हो सकेगा।


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अपने काम में डूबकर मिलती है सफलता

बहुत समय पहले की बात है, एक सरोवर में बहुत सारे मेंढक रहते थे। सरोवर के बीचों बीच एक बहुत पुराना धातु का खंभा भी लगा हुआ था। उसे भी सरोवर बनवाने वाले राजा ने ही लगवाया था। खंभा काफी ऊंचा था और उसकी सतह बिलकुल चिकनी थी। एक दिन मेंढकों के दिमाग में आया कि क्यों न एक रेस करवाई जाए। रेस में भाग लेने वाले प्रतियोगियों को खंभे पर चढ़ना होगा और जो सबसे पहले ऊपर पहुंच जाएगा, वही विजेता माना जाएगा।

रेस का दिन आ पहुंचा। चारों तरफ बहुत भीड़ जमा थी। आस-पास के इलाकों से भी कई मेंढक इस रेस में हिस्सा लेने पहुंचे। माहौल में सरगर्मी मची थी। रेस शुरू हो गई।लेकिन खंभे को देखकर वहां जमा हुए किसी भी मेंढक को ये यकीन नहीं हुआ कि कोई भी मेंढक ऊपर तक पहुंच पाएगा। हर तरफ यही सुनाई देता- ‘अरे ये बहुत कठिन काम है।’ ‘देखना, वो कभी भी ये रेस पूरी नहीं कर पाएंगे।’ ‘यहां सफलता का तो कोई सवाल नहीं। इतने चिकने खंभे पर चढ़ा ही नहीं जा सकता।’

सच में, जो भी मेंढक कोशिश करता, वो थोड़ा ऊपर जाकर नीचे फिसल जाता। कई मेंढक दो-तीन बार गिरने के बावजूद अपने प्रयास में लगे हुए थे। पर भीड़ तो अब भी चिल्लाए जा रही थी, ‘ये नहीं हो सकता।’ आखिरकार उत्साहित मेंढक भी ये सुन-सुनकर हताश हो गए और उन्होंने अपना प्रयास छोड़ दिया। लेकिन उन्हीं के बीच एक छोटा-सा मेंढक था, जो बार-बार गिरने पर भी उसी जोश के साथ ऊपर चढ़ने में लगा हुआ था। वह लगातार ऊपर की ओर बढ़ता रहा और अंततः खंभे के ऊपर पहुंच ही गया। वह इस रेस का विजेता बन गया।

उसकी जीत पर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ। सभी मेंढक उसे घेर कर खड़े हो गए और पूछने लगे,’तुमने ये असंभव काम कैसे कर दिखाया? तुम्हें लक्ष्य पाने की शक्ति कहां से मिली? हमें भी तो बताओ कि तुमने ये विजय कैसे प्राप्त की?’ तभी पीछे से एक आवाज आई, ‘अरे उससे क्या पूछते हो, उसे तो सुनाई ही नहीं पड़ता।’

अक्सर हमारे अंदर अपना लक्ष्य प्राप्त करने की काबीलियत होती है। लेकिन हम अपने चारों तरफ मौजूद नकारात्मकता की वजह से खुद को बहुत ही कम आंकते हैं। और इसीलिए, हमने जो बड़े-बड़े सपने देखे होते हैं उन्हें पूरा किए बगैर ही अपनी जिंदगी गुजार देते हैं। आवश्यकता इस बात की है हम अपने आपको कमजोर बनाने वाली हर एक आवाज के प्रति बहरे और ऐसे हर एक दृश्य के प्रति अंधे हो जाएं। अर्थात यह काम तभी संभव होगा जब हम किसी और चीज की परवाह किए बिना सिर्फ अपने काम में डूबे रहें। ऐसे में हमें सफलता के शिखर पर पहुंचने से कोई नहीं रोक पाएगा।


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धन-संपत्ति से ज्यादा जरुरी हैं अच्छे विचार

एक बार संत एक नगर में आए। वह प्रवचन के माध्यम से लोगों की समस्याओं का समाधान करते थे। एक दिन प्रवचन के बाद एक सेठ ने हाथ जोड़कर बड़ी निराशा के साथ कहा- ‘गुरुवर, मैंने मेहनत कर पाई-पाई जोड़ी और अपने इकलौते पुत्र के लिए अथाह संपत्ति एकत्र की, मगर वह उसे बड़ी बेदर्दी से कुव्यसनों में बर्बाद कर रहा है। पता नहीं बाद में उसे कैसे खराब दिन देखने पड़ें।’ संत ने मुस्कराकर पूछा-‘तुम्हारे पिता ने तुम्हारे लिए कितनी संपत्ति छोड़ी थी?’ सेठ बोला-‘वो तो बहुत गरीब थे, कुछ भी नहीं छोड़ा था।’ संत ने कहा-‘फिर भी तुम इतने धनवान हो। और अब इतना धन छोड़ने के बावजूद तुम समझ रहे हो कि तुम्हारे बाद तुम्हारा बेटा खराब दिन काटेगा।’ सेठ का चेहरा उतर गया और आंखें नम हो गईं- ‘आप ठीक कह रहे हैं स्वामीजी। परंतु मुझसे गलती आखिर कहां हुई है?’ त ने कहा- ‘तुम यह समझकर धन कमाने में लगे रहे कि अपनी संतान के लिए धन का भंडार भर देना ही दायित्व है। तुमने उसकी पढ़ाई व संस्कारों पर ध्यान नहीं दिया। जबकि पिता का संतान के प्रति यही प्रथम कर्तव्य है। बाकी तो वह सब अपने बलबूते हासिल कर ही लेगा।’ संत के उपदेश से सेठ को अपनी गलती का अहसास हो गया। वह समझ गया कि पुत्र के लिए सुसंस्कार आवश्यक थे।

हमारे धर्मशास्त्रों में धन की चार गति बताई गई हैं। वे हैं- दान, भोग, संग्रह और विनाश। जो व्यक्ति गरीबों, असहायों को दान देता है, गौशाला, मंदिर, बावड़ी, बाग आदि पर खर्च करता है, उसके धन का पूरी तरह सदुपयोग होता है। लक्ष्मी ऐसे दानी से खूब प्रसन्न होकर उस पर कृपा बनाए रखती है। इसी प्रकार धन का अपनी संतान के लिए असीमित संग्रह बहुत घातक होता है। बिना परिश्रम किए संतान को मिला धन उसके अंदर तरह-तरह के दुर्व्यसन, कलह, घातक बीमारियां और खराबियां पैदा करता है। लक्ष्मी अगर परिश्रम और ईमानदारी से आती हो, तो उसका दुरुपयोग हम कर ही नहीं सकते। इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिसमें बताया गया है कि ईमानदारी और श्रम से की हुई कमाई ही सुख, समृद्धि और बरकत पैदा करती है। इसलिए संतान के भविष्य की चिंता करते हुए उसके लिए धन संग्रह करना ठीक नहीं है। संतान का वास्तविक हित धन संग्रह में नहीं, अच्छे संस्कार और अच्छे विचार देने में है। किसी ने कहा था-‘किसी को पैसे की समस्या नहीं है। लोगों को बस विचारों की समस्या होती है। इसलिए जब तक आपके पास सही विचार हैं, तब तक जीवन में पैसे की समस्या नहीं होगी।’ संतान को अच्छे विचारों का धारक बनने दीजिए। तभी वह अपना उज्जवल भविष्य खुद बनाने में समर्थ हो सकेगी।


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झूठ, सच के सहारे ही खड़ा होता है

परमात्मा ने एक बार सौंदर्य और कुरुपता की देवी को धरती पर उतारा। यहां पहुंचते ही उनके वस्त्र और अंग धूल से भर गए। वे दोनों एक झील में स्नान करने के लिए उतर गईं। कुरुपता की देवी हरदम अपनी असुंदरता को छिपाने में लगी रहती थी। जैसे ही उसने देखा कि सौंदर्य की देवी स्नान करते-करते दूर निकल गई है, उसने सोचा क्यों न मैं उसके वस्त्र पहन लूं। वह झट से झील से बाहर निकल आई और सौंदर्य की देवी के वस्त्र पहन कर भाग निकली।

उधर सौंदर्य की देवी हैरान थी कि वह करे तो क्या। अंतत: उसने कुरुपता की देवी के ही भद्दे वस्त्र पहने और उसे खोजने निकल पड़ी। कहते हैं तब से आज तक सौंदर्य की देवी कुरुपता की देवी की खोज में धरती के चक्कर लगा रही है। लेकिन वह उसे आज तक नहीं मिली। सौंदर्य की देवी के वस्त्र पहने कुरुपता की देवी मजे से इठलाती घूम रही है।

सी कुरुपता की देवी के प्रतिनिधि आज के अनेक धर्म गुरु हैं जो अपने भक्तों को नपुंसक बनाना पहली शर्त रखते हैं। वे धार्मिक वस्त्रों के आवरण में अधर्म का धंधा करते हैं। व्यभिचार और अनाचार से ये लोग धर्म की धज्जियां उड़ा देते हैं। इन पाखंडियों का सत्य और प्रेम, मानवता और करुणा से कोई लेना-देना नहीं है। असत्य जब भी खड़ा होना चाहता है, इसी तरह सत्य का सहारा लेकर खड़ा होता है। वह उसी के आवरण में आम लोगों को अपने प्रभाव में ले लेता है। लेकिन यह भूल जाता है कि हारना असत्य के मूल में निहित है।

आसाराम, नारायण साईं और रामपाल जैसे पाखंडी इसके नए उदाहरण हैं। प्रश्न यह है कि कोई भोला भाला व्यक्ति इनसे कैसे बचे? उसे सच्ची श्रद्धा और आस्था जगानी हो तो क्या करे? इसके लिए एक ही मार्ग है। वह है आज से ढाई हजार साल पहले दिखाया गया गौतम बुद्ध का मार्ग। बुद्ध ने कहा था- तुम्हारे धर्म शास्त्र, तुम्हारे धर्म गुरु, तुम्हारे पंडित-पुरोहित, यहां तक कि मैं भी यदि कोई बात कहता हूं तो उसे इसलिए मत मान लेना कि मैं कहता हूं। उस पर विचार करना। उसे बुद्धि और विचार की कसौटी पर कसना। फिर भी लगे कि वह ठीक है तो न सिर्फ तुम्हारे लिए ठीक है बल्कि पूरी मानवता के लिए ठीक है। तब उसे पूरी तरह स्वीकार कर लेना। उसके लिए फिर अपने प्राण तक न्यौछावर कर देना।

बुद्ध व्यक्ति पर श्रद्धा थोपते नहीं। विवेक और संदेह के माध्यम से उसमें श्रद्धा जगाते हैं। थोपी गई श्रद्धा व्यक्ति को मानसिक रूप से पंगु और गुलाम बना देती है। ठीक इसके विपरीत विवेक सम्मत श्रद्धा व्यक्ति को सबल, आत्मनिर्भर और जागरूक बनाती है। ऐसे व्यक्ति को कोई पाखंडी मूर्ख नहीं बना सकता।